2019 में मोदी का 'विजय रथ' रोकने के लिए विपक्षी दलों ने बनाई यह रणनीति
अगले साल होने वाले लोकसभा चुनावों में भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) का विजय रथ रोकने की कोशिशों में जुटीं विपक्षी पार्टियों को संभवत: उत्तर प्रदेश के उपचुनाव से बड़ी सीख मिली है. सूत्रों के मुताबिक, विपक्षी पार्टियां अब राष्ट्रीय स्तर पर महागठबंधन की जगह राज्यों के हिसाब अपनी चुनावी रणनीति और उसी हिसाब से गठजोड़ की कोशिश करेंगी.
उत्तर प्रदेश में हुआ सपा-बसपा का गठजोड़ आने वाले दिनों में बीजेपी विरोधी मुहिम के लिए मिसाल बन सकता है, जहां विपक्षी पार्टियां अगले लोकसभा चुनाव में 'मोदी बनाम सब' के मुकाबले में पड़ते हुए उसे क्षेत्रीय मुद्दों पर लड़ने की रणनीति बनाती दिख रही हैं.
विपक्षी दलों के रुख में बदलाव की बानगी पिछले एक महीने के दौरान यूपी में देखने को मिली, जहां समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी और कांग्रेस के बीच चुनावी समझौता होता दिख रहा है. गोरखपुर और फूलपुर लोकसभा सीट पर उपचुनाव में जहां बीजेपी के खिलाफ लड़ाई के लिए सपा और बसपा ने हाथ मिलाया, तो वहीं कांग्रेस ने दोनों ही सीटों पर ऐसे उम्मीदवार खड़े किए, जिन्होंने शहरी और उच्च जातिवर्ग में भगवा दल के वोटों में सेंध लगाई. यहां एक दिलचस्प बात यह भी रही कि यूपी उपचुनाव में सपा-बसपा से अलग रहने वाली कांग्रेस करीब हफ्ते भर बाद ही राज्यसभा चुनाव में बसपा को समर्थन देती दिखी.
दरअसल अगड़ी जातियों में अब भी कांग्रेस समर्थकों की अच्छी संख्या है और इससे पहले के चुवानों में ऐसा देखा गया कि कांग्रस ने जिन सीटों पर उम्मीदवार नहीं उतारे वहां उसके ये वोटर पूरी तरह बीजेपी के पाले में चले गए. इसका उदाहरण त्रिपुरा चुनाव में भी देखा गया, जहां कांग्रेस अगर मजबूती से अपने उम्मीदवार उतारती तो बीजेपी को उस तरह लाभ नहीं होता.
विपक्ष की रणनीति में यह बदलाव राजनीतिक धरातल की नई पड़ताल के बाद दिख रहा है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की देश भर में मतदाताओं के बीच खासी अपील दिखती है और 2014 की तरह अगर अगले चुनावों में भी 'मोदी बनाम सब' का अभियान चलाया गया, तो वह बीजेपी के लिए फायदेमंद साबित हो सकता है.
आम चुनावों में 'मोदी बनाम सब' की लड़ाई होने से बीजेपी को एक फायदा तो यह होगा कि वह उन राज्यों में सत्ता विरोधी लहर से आसानी से पार पा सकती है, जहां कई वर्षों से उसकी सरकार है. दूसरा, इस सीधी लड़ाई से चुनावों के ध्रुवीकरण की संभावना है, जिसका सीधा लाभ बीजेपी को मिल सकता है.
वहीं बीजेपी भी उसके खिलाफ राष्ट्रीय स्तर पर तीसरे मोर्चा बनाने की क्षेत्रीय दलों की कोशिशों से ज्यादा चिंतित नहीं दिखती. यहां गौर करने वाली एक दिलचस्प बात यह भी है कि इस महीने की शुरुआत में यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी की डिनर पार्टी से तेलंगाना राष्ट्र समिति (टीआरएस), तेलुगु देशम पार्टी (पीडीपी) और बीजू जनता दल (बीजेडी) नदारद रही. हालांकि ये क्षत्रप ऐसे हैं, जिनका अपने राज्यों में बीजेपी के साथ कोई सीधी लड़ाई नहीं.
यहां एक हकीकत यह भी है कि लोकसभा चुनावों में बीजेपी का प्रदर्शन इस बात पर भी निर्भर करेगा कि कांग्रेस उसके साथ सीधे मुकाबले में कितनी सीटें उससे छीनेन में कामयाब हो पाती है. यहां कांग्रेस की राय यह है कि बीजेपी के खिलाफ राष्ट्रीय स्तर पर एक बड़ा मोर्चा लेने की जगह अगर छोटे-छोटे पर उसकी काट की जाए, तो नरेंद्र मोदी के पास वोटरों को खींचने की गुंजाइश कम ही बचेगी.