रामविलास पासवान की मुस्लिम मुख्यमंत्री की जिद और बिहार की सत्ता से बाहर हुए लालू यादव
बिहार चुनाव की दास्तान राजनीति के अनूठे प्रयोगों से भरी है. यहां कुछ भी संभव है. यहां नीतीश के साथ लालू संभव हैं, लालू के साथ पासवान संभव हैं, लालू और बीजेपी का साथ भी मुमकिन है. यहां किसी के लिए रेड कार्पेट बिछाया जाता है तो कुर्सी तक पहुंच चुके किसी के लिए लंगड़ी लगाई जाती है.
साल 2005 ऐसा साल था जब एक वर्ष में बिहार में दो विधानसभा चुनाव हुए. इस चुनाव ने 1990 से बिहार की सत्ता पर काबिज लालू यादव को पाटलिपुत्र से बाहर का रास्ता दिखा दिया. इस चुनाव में बिहार में 15 साल तक सत्ता चला चुके लालू ऐसे बिखरे कि अब तक अपने दम पर बिहार की सत्ता में वापसी नहीं कर सके. उस दौरान लालू को सत्ता से बाहर करने में रामविलास पासवान की अहम भूमिका रही. तब पासवान ने मुस्लिम मुख्यमंत्री का ऐसा कार्ड चला, जिसकी काट लालू के पास नहीं थी. या यूं कहें कि तब लालू ने पासवान के इस ऑफर को तवज्जो नहीं दी.
पासवान के इस ऑफर की चर्चा करेंगे, पहले तत्कालीन परिदृश्य समझ लें. 2005 के चुनाव से पहले 2000 की बात करें तो तब बिहार से झारखंड अलग नहीं हुआ था. साल 2000 में हुए विधानसभा चुनाव में लालू का M+Y समीकरण एक बार फिर काम कर गया था. लालू यादव की पार्टी राष्ट्रीय जनता दल 293 सीटों पर लड़ी और 124 सीट लाकर सबसे बड़ी पार्टी बनी. तब 324 सदस्यों वाली विधानसभा में सरकार बनाने के लिए 163 सीटें चाहिए थीं. नीतीश मार्च 2000 में 7 दिनों के लिए सीएम बने लेकिन बहुमत का जुगाड़ नहीं कर पाए नतीजन उन्हें इस्तीफा देना पड़ा. इसके बाद आरजेडी ने निर्दलियों और दूसरे दलों के सहयोग से बहुमत जुटाया और राबड़ी देवी के नेतृत्व में बिहार में राजद की सरकार बनी.
फरवरी 2005 में ऐसी स्थिति में बिहार में विधानसभा चुनाव हुए. इंडिया शाइनिंग नारे का नुकसान उठाकर वाजपेयी दिल्ली की सत्ता से बेदखल हो चुके थे. केंद्र में यूपीए वन की सरकार थी, लालू देश के रेल मंत्री थे, इसी सरकार में रामविलास पासवान उर्वरक मंत्री थे. इस चुनाव को लेकर पासवान महात्वाकांक्षी थे, उन्होंने अलग चुनाव लड़ने की घोषणा कर दी. यानी कि दिल्ली में तो वे लालू के साथ डॉ मनमोहन सिंह की कैबिनेट में थे, लेकिन बिहार में लालू के खिलाफ ही अपना उम्मीदवार उतारने जा रहे थे.
पासवान की चुनौती को लालू ने हल्के में लिया
पासवान की चुनौती को लालू ने हल्के में लिया, उनकी पार्टी पिछले 15 साल से सत्ता में थी. लालू को अपने MY समीकरण, अपनी हनक और रुतबे पर भरोसा था. उन्होंने पासवान की अकेले लड़ने की चुनौती स्वीकार कर ली. इधर रामविलास पासवान इस चुनाव के लिए किलेबंदी करने लगे. उनकी पार्टी में कई बाहुबली नेता आ गए थे और लालू कांग्रेस से नाराज कुछ सवर्ण छत्रप भी पासवान की छत्र छाया में आ गए.