मंदिर में दलितों के प्रवेश के पैरोकार थे शंकराचार्य जयेंद्र सरस्वती
कांची कामकोटी पीठम के शंकराचार्य श्री जयेंद्र सरस्वती का देहांत हो गया है. उन्हें ऐसे शंकराचार्य के तौर पर याद रखा जाएगा, जिन्होंने सीमाओं को तोड़ा और नई परिभाषाएं गढ़ीं. पूर्ववर्ती शंकराचार्यों की तुलना में वो लीक से हटकर चलने वाले धर्माचार्य थे. उन्होंने कांची मठ को जमाने के साथ चलाया. उसकी गतिविधियों को नए आयाम दिए. राजनीतिक सक्रियता से भी उन्होंने गुरेज नहीं किया बेशक इसके लिए वो विवादों में भी घिरे.
मां-बाप ने उन्हें सुब्रमण्यम महादेवन नाम दिया था. बचपन से ही बेहद कुशाग्र थे. दूसरे बच्चों से कुछ अलग. कम उम्र में ही वो कांची मठ आ गए. उन्हें अगले शंकराचार्य के रूप में तैयार किया जाने लगा. जब वह केवल 19 साल के थे, तभी उन्हें 68वें शंकराचार्य परमाचार्य चंद्रशेखरेंद्र सरस्वती का उत्तराधिकारी घोषित किया गया. ये वर्ष 1954 की बात है.
जयेंद्र सरस्वती ने उत्तराधिकार संभालने के बाद जब नए क्षेत्रों में सक्रियता बढाई तो इसे लेकर सवालों का माहौल बन गया. हालांकि धीरे-धीरे वो समझाने में सफल रहे कि समय बदल रहा है, लिहाजा मठ को भी ध्यान और धार्मिक कार्यों के साथ सामाजिक कार्यों में सक्रियता दिखानी होगी. ऐसा होने भी लगा. कांची कामकोटी मठ ने उन्हीं के समय में शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में बड़े प्रोजेक्ट्स पर काम शुरू किया. चेन्नई का शंकर नेत्रालय आज की तारीख में देश का सबसे बड़ा और आधुनिक सुविधाओं वाला आंख का अस्पताल है. ऐसा ही अस्पताल बाद में गुवाहाटी में खोला गया. कई और अस्पतालों और स्कूलों की शुरुआत हुई. अब कांची मठ केवल धार्मिक संस्थाओं का ही पीठम नहीं है बल्कि कई ट्रस्ट, शैक्षिक संस्थान और स्वास्थ्य के कामों को संचालित करता है.दलितों को मंदिर में प्रवेश देने की पैरवी की
जयेंद्र ने साथ ही दलितों को मंदिर में प्रवेश देने का अभियान चलाया तो धर्म परिवर्तन का जमकर विरोध किया. हालांकि पिछले चार दशकों से वो तमिलनाडु की सरकारों के कामकाज की खुलकर आलोचना करने वाले शख्स के रूप में उभरे तो उनके आलोचक कहते थे कि भाजपा और हिंदू संगठनों के फायदे की राजनीति करते हैं. वो पहले शंकराचार्य भी थे, जिन्होंने अपने राजनीतिक विचारों को दबाया नहीं. खुलकर बोले. इसके चलते वो तमिलनाडु में करुणानिधि की डीएमके की आंखों में खटके और जयललिता से भी ठन गई. उन्हें जेल जाना पड़ा.
वो उनके लिए मुश्किल समय था
जयललिता के मुख्यमंत्री रहते वर्ष 2002 और 2004 में उनके खिलाफ दो मामले दर्ज हुए. इसमें एक मठ के मैनेजर शंकर रामन के खिलाफ हत्या की साजिश रचने का था. जयेंद्र बार बार कहते रहे कि इससे उनका कोई लेना देना नहीं है. लेकिन जयललिता अड़ी रही. जयललिता सरकार के कदम के खिलाफ पूरे देश में गुस्सा भड़का, प्रदर्शन हुए. निचली अदालत ने उन्हें तीन बार जमानत देने से मना कर दिया. हालांकि बाद में सुप्रीम कोर्ट से जमानत मिली. बाद में वो मामले से बरी भी हो गए. जयेंद्र सरस्वती ने हमेशा कहा कि वो बेगुनाह हैं. उनका इन मामलों से कोई लेना देना नहीं है.वो जयेंद्र सरस्वती के लिए मुश्किल समय था.
डीएमके प्रमुख करुणानिधि तो जयेंद्र सरस्वती की राजनीतिक सक्रियता से इस कदर खफा थे कि उन्होंने ठान लिया था कि इस मठ को सरकार के नियंत्रण में ले आएंगे. हालांकि वो ऐसा चाहकर भी कर नहीं पाए. इसके उलट कांची मठ और मजबूत होकर उभरा. प्रवासी भारतीयों के साथ जाने माने राजनीतिज्ञों का संरक्षण उसे मिला.
अयोध्या में मंदिर निर्माण के बड़े पैरोकार
वैसे जयेंद्र को अयोध्या मंदिर मामले में सक्रियता के लिए याद किया जाएगा. जब अटल की सरकार केंद्र में सत्ता में आई तो शंकराचार्य इस मामले में काफी सक्रिय दिखे. वह मंदिर निर्माण के बड़े पैरोकार बनकर उभरे. मृत्यु से कुछ समय पहले भी उन्होंने एक इंटरव्यू में कहा था कि अयोध्या में हर हाल में मंदिर बनना चाहिए.
देश में शंकराचार्य परंपरा नौवीं सदी से चल रही है. समय के साथ शंकराचार्यों ने सनातन हिंदू धर्म जागरण के लिए तमाम काम किए. देशभर में लगातार यात्राएं कीं. जयेंद्र भी उसी परंपरा से निकले शंकराचार्य थे लेकिन उन्होंने अपनी भूमिका को और ज्यादा बड़े परिप्रेक्ष्य में देखा. उसे विस्तार भी दिया. उनसे मिलने वाले उनकी विद्वता और जटिल चीजों को समझने की क्षमता से चकित रह जाते थे. पूर्ववर्ती शंकराचार्यों की तरह वो कई भाषाओं पर अधिकार रखते थे और माना जाता था कि वो भी कई ईश्वरीय शक्तियों से लैस हैं.
बीच में मठ छोड़कर गायब भी हो गए थे
उनका जीवन साधारण था. उनसे मिलना कठिन नहीं था. हालांकि कई बार में उन्होंने ऐसे काम भी किए कि लोग हैरान रह गए. जब 1987 में उन्होंने अचानक मठ छोड़ दिया और वो कहां गए किसी को पता नहीं चला. ये खबर देशभर के अखबारों में सुर्खियां बन गई. दो तीन दिन बाद पता लगा कि वो कर्नाटक में हैं. ये कयास लगाए गए कि शंकराचार्य चंद्रशेखरेंद्र सरस्वती से अनबन के कारण उन्होंने ये कदम उठाया है. वह वापस तो लौटे लेकिन उन्होंने खुद को समेट लिया. चतुर्मासदर्शन देना बंद कर दिया तो कई लोगों को चिंता हो गई. यहां तक की कांची के भक्तों में शामिल तत्कालीन राष्ट्रपति आर. वेंकटरमन को ने भी इस पर चिंता जाहिर की.
जयेंद्र 1994 में तब कांची मठ के पीठाधिपति बने, जब 68वें शंकराचार्य का निधन हुआ. अब जबकि जयेंद्र अनंत यात्रा पर निकल चुके हैं, तब उनका स्थान विजेंद्र सरस्वती लेंगे.