श्रीदेवी जैसे सेलिब्रेटी के जाने पर हमें इतना दुख क्यों होता है...

‘श्रीदेवी! सीरियसली? मतलब कैसे, क्यों? ऐसा लग रहा है कोई अपना परिचित चला गया!!’ – फेसबुक पर लिखी गई ये पोस्ट उन तमाम भावनाओं का प्रतिबिंब है जो रविवार सुबह से श्रीदेवी के प्रशंसकों के मन में उमड़ रही है. सेलिब्रेटी, फिर वो नेता हो या अभिनेता, के निधन की खबर दुख पहुंचाती है लेकिन कुछ नाम ऐसे होते हैं जिनकी मौत भीतर तक हिलाकर रख देती है. खासतौर पर तब जबकि मौत असमय हो. पिछले साल दक्षिण भारत की लोकप्रिय नेता जयललिता के निधन की खबर को काफी सोच समझकर प्रसारित किया गया था. हालांकि जयललिता का स्वास्थ्य काफी समय से खराब चल रहा था लेकिन डर था कि उनके चाहनेवाले अपने पसंदीदा नेता के जाने की खबर को सुनकर कहीं अति भावुकता में न बह जाएं.
साल 2006 में कन्नड़ फिल्मों के सुपरस्टार राजकुमार का निधन दिल का दौरा पड़ने से हुआ था. उनके प्रशंसक इससे इतने सकते में आ गए कि कइयों ने तो खुदकुशी तक करने की कोशिश की. बेंगलुरु शहर में अनाधिकारिक बंद घोषित कर दिया गया. राजकुमार के अंतिम दर्शनों के लिए करीब 20 लाख लोग पहुंचे. शिवसेना नेता बाला साहेब ठाकरे का निधन तो हाल ही की बात है. वहां भी कुछ ऐसा ही हाल था. सवाल यह है कि आखिर ऐसा शख्स, जिससे हम कभी मिले न हो, उसकी मौत पर हम दुख क्यों महसूस करते हैं. आखिर क्यों एक अजनबी की मौत हमें अंदर तक हिलाकर रख देती है.

पसंदीदा सेलिब्रिटी का हमसे होता है जुड़ाव
पिछले साल वेबसाइट वाइस में इस विषय से संबंधित छपे एक लेख में कैलिफोर्निया की नेशनल यूनिवर्सिटी में समाजशास्त्र के प्रोफेसर जैक फॉल्टन का बयान गौर करने लायक है. जैक कहती हैं ‘हमारे पसंदीदा सेलिब्रेटी दरअसल हमारे खुद के विकास में बहुत अंदर तक जुड़े होते हैं. इनके साथ हमारा जुड़ाव बहुत गहरा होता है. यही वजह है कि हम खुद को उनसे जोड़कर देखते हैं.’ इसे समझने के लिए ज़रा श्रीदेवी से जुड़े कुछ फेसबुक और ट्विटर पोस्ट देखिए. वेंकटरमण गणेशन लिखते हैं – ‘मेरी किशोरावस्था का एक हिस्सा आज दुनिया छोड़कर चला गया.’ ऋचा राजे लिखती हैं ‘यह यकीन करना मुश्किल हो रहा है कि मेरे
बचपन की पसंदीदा अभिनेत्री अब हमारे बीच नहीं रही.’
हमारे व्यक्तित्व निर्माण में सामाजिक और सांस्कृतिक माहौल का बड़ा योगदान होता है. भारत में फिल्में इसमें अहम रोल निभाती हैं. श्रीदेवी जैसी लोकप्रिय हस्ती का जाना हमें हमारे बचपन या जवानी के उन्हीं लम्हों की याद दिलाता है जिसने हमें प्रभावित किया था. ‘चांदनी’ फिल्म का ‘मेरे हाथों में नौ नौ चूड़ियां’ उस दौर में बड़े हो रहे ज्यादातर बच्चों को याद होगा. हममें से कई तो शादियों में इस गाने पर नाचे भी होंगे.

कैसे उनका जीवन अपना लगने लगता है
बात सिर्फ इतनी नहीं है कि आप उस दौर में बड़े हुए जब श्रीदेवी जैसा नाम भी बड़ा हो रहा था. सोशल मीडिया से बाहर लोग ये कहते हुए भी सुने जा रहे हैं कि श्रीदेवी की दो प्यारी बेटियां हैं. उन पर क्या बीत रही होगी. जैक मानती हैं कि ‘सेलिब्रेटी का कुछ ऐसा करना या कहना - जो आम इंसान की जिंदगी से जुड़ा हुआ है – उसे हमारे और करीब लेकर आता है. लोग उनसे और ज्यादा जुड़ा हुआ महसूस करते हैं.’ आए दिन ऐसी खबरें आना कि श्रीदेवी अपनी बेटियों को लेकर किसी मां की तरह चिंतित रहती हैं, इंस्टाग्राम पर उनका अपने परिवार के साथ तस्वीरें पोस्ट करना, उनकी जिंदगी से जुड़ी बातों को साझा करना, हमें महसूस कराता है कि वो भी हमारी ही तरह हैं. जैक के मुताबिक यह सब बातें आखिरकार आपकी पहचान के निर्माण, आपके जीवन चक्र और चुने गए रास्तों को भी वैधता देने का काम करती हैं.

क्या दुख जताना आनंद का तरीका है
लेकिन सेलिब्रेटी और किसी अपने के जाने के दुख के बीच एक अहम अंतर है. इस पहलू को टोरंटो के सेंटर ऑफ मीडिया एंड सेलिब्रेटी स्टडीज़ की डॉ समिता नंदी काफी स्पष्टता के साथ समझाती हैं. नंदी कहती हैं कि सेलिब्रेटी के जाने पर जताने वाले अफसोस में कमी है उस ‘भौतिकवादी जिम्मेदारी’ की जो किसी अपने का जाने पर होती है. जब कोई अपना जाता है तो उससे जुड़ी आर्थिक और सामाजिक जिम्मेदारियां हमारे कंधों पर आ जाती हैं. वहीं इसके उलट सेलिब्रेटी के निधन पर यह सभी जिम्मेदारियां उसके परिवार और टीम की होती हैं. यानि आप इसे पूरे घटनाक्रम को दूर से बिना किसी जिम्मेदारी के देख सकते हैं. नंदी के मुताबिक ‘कथित दुख पर अफसोस जताना दरअसल आनंद का ही एक तरीका हो गया है.’

डिजिटल युग में संवेदना
नंदी की कही यह बात सोशल मीडिया के इस दौर में काफी सटीक बैठती है. सेलिब्रेटी के निधन पर हैशटैग और RIP की बाढ़ लग जाती है. कई बार तो हम ऐसी हस्तियों को भी श्रद्धांजलि देने से नहीं चूकते जिनसे मिलना तो दूर हमने कभी नाम भी नहीं सुना होता है. ब्रिटेन की वेबसाइट द इंडिपेंडेंट में छपे एक लेख में विनचेस्टर यूनिवर्सिटी के डॉ डेविड गाइल्स इस तरह के अफसोस को ‘पैरासोशल इंटरएक्शन’ कहते हैं. यह हो सकता है कि आप इस भावना से अवगत न हो. एलिज़ाबेथ क्यूबलर रॉस ने अपनी किताब ‘ऑन डेथ एंड डायिंग’ में गहरे दुख के पांच स्तर का जिक्र किया है – यकीन न करना, गुस्सा आना, खुद को समझाना, अवसाद और फिर आखिरकार स्वीकार कर लेना. डिजिटल युग में इसमें एक स्टेप और जोड़ ली गई है – फेसबुक पर मृतक के बारे में दो शब्द लिखना.

मौत पर उपजी भावनाएं क्या कहती हैं
सेलिब्रेटी के निधन पर हमारे सक्रिय होने की एक वजह और भी है – मौत को लेकर हमारा मानसिक रूप से तैयार न होना. कई लोग श्रीदेवी के निधन की वजह कथित ड्रग ओवरडोज़ या सर्जरी को बता रहे हैं. वाइस के लेख में फॉल्टन इसे ऐसे समझाती हैं. ‘हम नहीं जानते कि मृत्यु के बाद हमारा क्या होगा. मौत के बारे में हमें कोई ट्रेनिंग तो दी नहीं गई है इसलिए हम कभी भी ऐसे दुख के लिए खुद को तैयार नहीं पाते. ऐसे में लोकप्रिय हस्तियों को उनकी मौत के लिए खुद जिम्मेदार बताकर हम कहीं न कहीं, अपने आपको समझा रहे होते हैं कि हम वह गलतियां नहीं करेंगे जो इस हस्ती ने की है. मौत से जुड़ी भावनाओं को हम कुछ इसी तरह मैनेज करते हैं.’

इसमें कोई शक नहीं कि सेलिब्रेटी के निधन पर उमड़ी हमारी भावनाएं काफी पेचीदगियों से भरी हैं. यह इतनी आसान नहीं है कि इन्हें चंद शब्दों में ढाला जाए. यह हमारे जीवन में उस व्यक्तित्व के प्रभाव तक ही सीमित नहीं है. डिजिटल दौर में आप एक फॉलो का बटन दबाकर सेलिब्रेटी की जिंदगी में झांक सकते हैं. ऐसे में अगर आपका एक ट्वीट भी श्रीदेवी जैसी किसी हस्ती ने अगर कभी, किसी दिन रिट्वीट कर दिया होगा तो उनके निधन के मायने ही आपके लिए पूरी तरह बदल गए होंगे. और जिनके साथ ऐसा नहीं हुआ, उनके लिए यूट्यूब है और श्रीदेवी के गाने है....